धर्म नगरी इटखोरी का इतिहास अत्यंत प्राचीन है।प्रागैतिहासिक काल से यह स्थान आस्था का केंद्र रहा है। यहाँ प्राप्त अवशेषों से इसकी भव्यता का पता चलता है। पारिस्थितिक उथल पुथल के कारण यह पवित्र पौराणिक स्थान लुप्तप्राय हो चला था।
आज समाज और सरकार के थोड़े से प्रयास से ही यह स्थान पुनः अतीत के गौरव को प्राप्त करने में सफल रहा है। हो भी क्यों नहीं!यहाँ प्रत्यक्ष रूप में माँ भद्राकाली विराजमान हैं। माँ काली का यह सौम्य रूप है। जहाँ काली का स्मरण होते ही,माता का भयंकर रूप नजरों में कौंध जाता है, वहीं माता भद्राकाली का शांत स्वरूप देखते ही बनता है। माता के रूप को देखने मात्र से हृदय को परमानन्द की अनुभूति होने लगती है। पूर्ण निराकार का अद्भुत अनुभव होने लगता है। सत्य और असत्य का भेद बहुत पीछे छूट जाता है। घंटियों की गूंज भी शांत प्रतीत होती है। भक्त इस लोक में रहते हुये उस लोक के आनंद में पलभर को खो जाते हैं।
इस स्थल पर अल्प प्रयास से ही साधक ध्यानस्थ हो जाता है ।
शायद इसी कारण से भगवान बुद्ध ने अपनी तपस्या का पहला कदम यहीं रखा होगा।
शिलालेखों से पता चलता है कि राजा महेन्द्र पाल द्वितीय ने इस मनोरम नगर को नौवीं शताब्दी में पुनर्स्थापित किया था। वैसे आदि ग्रन्थों में भी इस स्थान का स्वरूप वर्णित है। यहाँ ध्यान लगा कर बैठने पर अनन्त शान्ति की प्राप्ति होती है। साधकों के अनुसार जब कोई एकाग्रचित्त होकर बैठता है तब उसे एक अलग प्रकार के कम्पन की अनुभूति होती है। अपनी इन्ही विशेषताओं के कारण माँ भद्राकाली की यह भूमि साधना स्थल के रूप में जानी जाती रही है।शायद इसीलिए जैन धर्मावलंबियों की यह प्रमुख साधनास्थली रही है। यहाँ के कण- कण में माता भद्राकाली की बिखरी आभा की अनुभूति सहज ही होती है।
माता के गर्भ गृह में तो अलौकिक शांति की प्राप्ति होती है। गर्भ गृह में प्रवेश करते ही आत्मा शून्य में चली जाती है।
माँ भद्राकाली की आदमकद प्रतिमा वेशकीमती पत्थर को तराश कर बनायी गयी है। माता चार भुजाओं से आशीर्वाद की मुद्रा में मुस्कान बिखेरती नजर आती है। ध्यान से देखने पर पहर दर पहर माता का स्वरूप बदलते रहता है।
इस स्थान की एक और विशेषता है कि यहाँ विशाल शिवलिंग विराजमान है। इस प्राचीन शिवलिंग में 1008 शिवलिंग नजर आते हैं जो दुर्लभ ही प्रतीत होता है। सच मायने में यह सहस्र शिवलिंग अपने आप में भव्य धार्मिक नगरी का प्रमाण है।यहाँ की प्राकृतिक छटा भी निराली है।महाने और बक्सा नदी के संगम तट पर स्थित माँ भद्राकाली परिसर के पीछे आज भी घने वनों का मनोरम दृश्य देखने को मिलता है।वहीं तमासिन नामक एक जल प्रपात है।इस स्थान को देखने से ही पौराणिक विचार उतपन्न होने लगते हैं। महर्षि सुमेधा संभवतः यहीं स्थित गुफा में तपस्या करते थे। इसी स्थान पर राजा सुरथ को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और माँ भगवती के दर्शन हुए थे। पवित्र ग्रन्थ दुर्गा सप्तशती की रचना महर्षि सुमेघा द्वारा इसी स्थान पर किया गया था।दुर्गा सप्तशती के अनुसार यह भी सत्य है कि मधुकैटभ आदि दैत्यों के विनाश स्थल भी यही प्रदेश था। इस प्रकार इटखोरी अर्थात माँ भद्राकाली का यह प्रांगण में अनेकानेक गुप्त रहस्यों से भरा पड़ा है।
–श्रीराम रॉय, शिक्षक,जयप्रकाश नगर,इटखोरी