नव वर्ष -आनंद जैन अकेला

*कविता*

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आया करता है नया साल, जाता है नया साल।
पर होता नहीं अहसास, कि आता है बन के ढाल।।

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पहले तो उठा करती थी, मन में बेजा नई उमंग।
रहती अब जेब खाली, हो जाता रंग में भंग।।

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नहीं होता था पहले, कभी आर्थिक रूप से दुख।
पड़ा जेब पर डाका, कोरोना चलते गया सुख।।

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हर किसी का अब उत्साह, हुआ पूरी तरह विलीन।
हर एक दिल से खुशियाॅ॑, हो चुकीं हैं एक दो तीन।।

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भाग नहीं सकते हैं ,लेकर के हम कर्ज विदेश ।
क्या रखा है जीवन में, वह तो यहीं कटेगा शेष।।

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अवसाद ग्रस्त है मानव, समझ में नहीं कुछ आता।
पटरी से गाड़ी उतरी है, संभल नहीं पाता।।

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कर जाता आकर नव वर्ष, ख्वाबों को नेस्तनाबूद।
कसाले की जिंदगी में, इंसान है खोता वजूद।।

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मीरा और सुकरात की तरह, हम पीते हाला।
नव वर्ष विपदा बनता, कंठ उतारें विष प्याला।।

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सहन नहीं कर पाते हैं, कितना और सहेंगे हम।
हर वर्ष नया आता, देता ही जाता बेहद गम।।

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गम के पाले में गेंद देख, घबराए न”अकेला”।
कट जाए आस में जीवन, आ जाए जाने बेला।।

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*कवि आनंद जैन अकेला कटनी मध्यप्रदेश*
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