फर्क नहीं पड़ता-क्या सोचता है जमाना-sushma

तेरी यादों के खुशबू से, तर होती है मेरी शामें।
कुछ हसरतें, हल्की आहटे, इन्तज़ार में बीतती हैं मेरी शामे।।

फर्क नहीं पड़ता,क्या सोचता है जमाना।
तेरे सानिध्य में खुशनुमा हो जाती हैं मेरी शामें।।

बहुत कुछ अनकहा उबल रहा हृदय में मेरे।
तोडो रूढ़ियों को तो, महक उठेंगी मेरी शामें।।

इल्ज़ाम नहीं दूंगी,ना कहूंगी तुझे पत्थर दिल।
सपनों के इन्द्रधनुष में डूबती उतराती मेरी शामें।।

जाते जाते संध्या निखर कर आयी देहरी पर।
क्षितिज की उदास आखें देख तड़प उठी मेरी शामें।।
सुषमा सिंह
औरंगाबाद
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