निज भाषा का सम्मान जरूरी,
राह में हो भले कितनी मजबूरी ।
देववाणी संस्कृत की है बेटी,
हिंदी भाषा से क्यों हो हेठी,
भाषा असक्त हो घर में बैठी ,
निज भाषा का उत्थान जरूरी,
राह में हो भले कितनी मजबूरी ।
विविध भाषा का हुआ मेल,
वट पर चढ़ गयी अमरबेल,
शुद्धता के साथ हुआ खेल,
भाषा का अब स्नान जरूरी,
राह में हो भले कितनी मजबूरी ।
अतुल्य शब्दकोश का भंडार,
हैं छंद, समास और अलंकार
विभिन्न विधाओं से है शृंगार,
निज भाषा का अतिमान जरूर ,
राह में हो भले कितनी मजबूरी ।
हिंदी मातृभाषा जन-जन की,
मधुर सुवासित पुष्प चमन की,
बने राष्ट्रभाषा अपने वतन की,
निज भाषा का अभिमान जरूरी,
राह में हो भले कितनी मजबूरी ।।
(स्वरचित तथा मौलिक रचना)
सीमा वर्णिका
कानपुर उत्तर प्रदेश