कविता अपनों से जंग

अपनों से जंग
विधा कविता
भले बैर भाव पल रहे जंग नहीं लड़ सकते हैं
चंद चांदी के सिक्कों पे हम नहीं अड़ सकते हैं

अपनापन अनमोल गायब सदाचार मिलता कहां
रिश्तो में कड़वाहट घुली वह प्रेम प्यार रहा कहां

एक दूजे को नैन दिखाए भाई से भाई टकराए
जर जमीन के चक्कर में शह मात सभी खाए

हक औरों का खाकर भी कोई आसमां नहीं चढ़ता
अपनों से जंग जो पाले दुनिया में कब आगे बढ़ता

प्यार के मोती लुटाओ सद्भावों की गंगा बहा हो
अपनों से जंग छोड़ो दुनिया में शोहरत पाओ

उच्च विचार रखकर सुधा रस बरस जाने दो
खुशियों के सुहाने पल अब जिंदगी में आने दो

दुनिया में आनंद बरसे मत करना अपनों को तंग
सुख दुख में काम आए अपनों से ना लड़ना जंग

अपने अपने ही होते हैं अनजान मत होने देना
रिश्तों की मधुरता दिल से कभी ना खोने देना

रमाकांत सोनी नवलगढ़
जिला झुंझुनू राजस्थान

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