छाया था चहु ओर ही
घोर बहुत ही अंधकार
कंस के अत्याचार से
जनता करे हाहाकार।
रोशनी की किरण कहीं
आती नहीं थी नजर
धैर्य छुट रहा था सबका
नहीं सूझता कोई डगर।
रो रही थी लता पताका
गौवें भी थी बहुत उदास,
कालिंदी के आंचल में भी
नहीं कहीं था उच्छवास।
राह नहीं जब दिखता है
निराशा हाथ सिर्फ मिलता है
विश्वास मात्र विधाता का
मन में तभी बस खिलता है।
थी रात अंधेरी घनी घनी
भाद्र कृष्ण दिन अष्टमी
जन-जन की बनी तारिणी,
सत्य हुई योग माया की वाणी।
वसुदेव करते गहन चिंतन
कब होगा दुखों का समन
अज अनन्त अरु अविनाशी
हुए अवतरित बन देवकी नंदन।
—गोपाल मिश्र, सिवान