*किरदार*
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हम तो सिर्फ अपने अपने किरदार निभा रहे है
असल में जिंदगी तो ये वक्त जीता है
हम अपने किरदार निभाने में मस्त रहते हैं
एक व्यक्ति ना जाने कितने किरदारों में घिरा होता है
कि उसे खुद ही नहीं होता पता
की उसका असली किरदार क्या है
कभी पैदल ही चल पड़ता है ।
कभी गाड़ियों में कभी ट्रेनों में
तो कभी दोस्तो के साथ तो कभी अकेले में
कभी खो जाता है वह रिश्तों के मेलो में
एक शरीर कभी बेटा/बेटी होता है ,
तो कभी भाई/बहन बन जाता है ,
तो कभी किसी का दोस्त/दुश्मन बन जाता है ,
तो कभी किसी का शिष्य/गुरु बन जाता है ,
तो कभी किसी का जमाई/ससुर कहलाता है ,
तो कभी किसी का मामा/मामी ,
तो कभी किसी का मां/बाप बन जाता है
फिर वही क्रम बनता ही जाता है ।
यह जिंदगी एक वक्त जीता है
हर विष कि बूंदे इंसान अपने किरदारों में पीता है
यहां इस मेले में या कहीं अकेले में
निभाने पड़ते है अच्छे बुरे किरदार
इस नामें जिंदगी के झमेले में
किरदार खत्म होने के किनारे होते ही
इस रूह को मिट्टी होते ही
एक नया नायक किरदार में आता है
ये किरदार इतिहास बन जाते ही
रुकता नहीं है वक्त चलता ही जाता है
मरता नहीं ये वक्त मारता ही जाता है
जिंदगी तो वक्त ले जाता है
शरीर किरदार निभाता रहा जाता है
दीपक कुमार विश्वकर्मा
फतेहपुर उत्तर प्रदेश
Insta vishwakarma_DeepakKumar
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