अरुण दिव्यांश
व्यापारिक पटल
नहीं चाहिए व्यापारिक पटल ,
बन रहे कविजन उल्लू सीधा ।
रकम वसूलते भारी भरकम ,
संग में माँगते कोई भी विधा ।।
एक तो दें कवि अपनी रचना ,
दूजे देते ऊपर से वे भी पैसे ।
लालच से ग्रसित यह जीवन ,
सच्चे रिश्ते चल पाएँगे कैसे ।।
जपते नाम जो हैं त्याग का ,
गीत गाते साहित्यिक राग का ।
कवि जनों के हैं शोषण करते ,
सिर बाँधे साहित्यिक पाग का ।।
मजबूरी के हैं जो लाभ उठाते ,
नव कविजन को लेते निचोड़ ।
भोले कविजन होते दुःखदायी ,
उस रास्ते से मुँह वे लेते मोड़ ।।
साहित्य जगत का नाम करो ,
साहित्य को न बदनाम करो ।
मत करो साहित्य ये कलंकित ,
अपना नियत नहीं खाम करो ।।
करें साहित्य को हम शीर्षोपरि ,
साहित्य छूते ही आसमान रहे ।
कवियों को होती आर्थिक तंगी ,
पटल को सदा यह ध्यान रहे ।।
लिख रहा निज मन की बिथा ,
कृपया इसे कोई अन्यथा न लें ।
अरुण दिव्यांश करजोड़ विनती ,
अर्थविहीन को स्थान उच्च दें ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना ।