मीनल झारखंड के एक छोटे से गांव से
थी। पिता पोस्ट आफिस में क्लर्क थे । दसवीं तक की पढ़ाई गांव में पूरी करने
के बाद आगे की पढ़ाई करने मीनल
दिल्ली चली गयी। सब कुछ अपने ढर्रे
पर चल रहा था। माॅं पापा मीनल के लिए हर महीने समय से पैसा भेजते, ताकि मीनल की पढ़ाई में व्यवधान ना आए। मार्च बीतते बीतते अप्रैल की शुरूआत और फिर कोरोना की दूसरी
भयावह लहर की खबरें आने लगीं। शहर
गांव हर जगह लाॅक डाउन हो गया। डाॅक्टरर्स और पुलिस कर्मी चौबीस घंटे
मुस्तैद रहने लगे। फिरभी आए दिन मरीजों
एवं मौतों का सिलसिला बढ़ता ही जाता। इसी बीच मीनल की मां को भी बुखार के साथ सर्दी खाॅंसी की समस्या हुई। दूसरे दिन
मीनल के पापा भी चपेट में आ गये। तेज
बुखार खांसी और भूख ना लगने की
शिकायत के साथ वे डाॅक्टर के पास गये।
डाॅक्टर ने दूरसे ही आयुष काढ़ा, गर्म पानी
और कुछ दवाईयां देकर उन्हें घर में ही क्वारेनटाईन होने को कह
दिया। लेकिन
यह क्या तीसरे दिन मीनल की माॅं की
तबियत काफी खराब हो गयी और दोपहर
होते होते वह दर्द से छटपटाने हुए मृत्यु को प्राप्त हुई।साथ रहने वाले चाचा चाची दूर
से सब देखते रहे।पास ही काट पर पत्नी का यूं तड़प तड़प कर प्राण त्यागना मीनल के पापा के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं था। देखभाल के अभाव में दूसरे
दिन वह भी चल बसे। दोनों का दाह संस्कार साथ ही हुआ। मीनल का रो रो
कर बुरा हाल था। अब बिल्कुल अकेली
मीनल डर के मारे रात भर सो भी ना पाती। दुःख के क्षणो में किसी अपने को तलाशती मीनल को अपने सहपाठी
नीरज की याद आती है।नीरज और मीनल
नोट्स वगैरह साथ ही तैयार करते थे।और एक दूसरे के प्रति आकर्षित भी थे।मीनल नीरज को फोन कर सारी स्थिति से अवगत कराती है। नीरज अपनी मां को
मीनल के बारे में बताता है और दूसरे दिन
नीरज अपनी माॅं के साथ मीनल के गांव में आता है ,और गांव के ही देवी मंदिर में नीरज मीनल की मांग में सिंदूर डाल उसे सदा केलिए अपना बना लेता है।गांव वाले इस देवदूत को देखते रह जाते हैं। भारतीय
समाज में सिंदूर का कितना महत्व है यह बताने की आवश्यकता नहीं। मीनल के जीवन में एक नयी सुबह होती है।
सुषमा सिंह
औरंगाबाद
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( सर्वाधिकार सुरक्षित एवं मौलिक)
